लेखक - राजेन्द्र पाध्ये32 साल पहले 6 अप्रैल 1980 को दिल्ली के फिरोज शाह कोटला मैदान में देश भर से आये 3500 प्रतिनिधियों की बीच भाजपा के गठन की घोषणा की गई जिसमें अनुभवी नेता अटल बिहारी वाजपेयी को इसका प्रथम राष्ट्रीय अध्यक्ष चुना गया ।
आज भाजपा के तीन दशक पूरे हो चुके हैं इन तीन दशको में इस पार्टी ने उतार चढ़ाव से भरा एक लम्बा सफर तय किया है । 1980 में अस्तित्व में आने के बाद ही इसके नेताओं ने यह स्पष्ट कर दिया था कि यह नया दल अपनी विरासत जनसंघ की ओर नही लौटकर एक नई शुरुआत करेगा और राष्ट्रीय राजनीति में मजबूत गैर कांग्रेसी विकल्प बनकर उभरने की दिशा में काम करेगा ।
भाजपा ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को अपनी मार्गदर्शक संस्था मानकर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को अपनी कार्यशैली का हिस्सा बनाया । पं. दीनदयाल उपाध्याय द्वारा प्रतिपादित एकात्म मानववाद के सिद्धांत को पार्टी ने अपनी विचारधारा में शामिल कर अंत्योदय अर्थात अंतिम व्यक्ति के उत्थान के लिए काम करने की प्रतिबद्धता जाहिर की ।
1984 में भाजपा ने पहली बार आम चुनावों का सामना किया जिसमें इंदिरा गांधी की हत्या की सहानूभूति लहर पर सवार होने के कारण कांग्रेस ने 401 सीटें हासिल की जबकि भाजपा को मात्र 2 सीटे ही मिलीं जबकि इसके ठीक 1 वर्ष पहले ही 1983 में हुए कर्नाटक विधानसभा चुनाव में उसने 224 में से 18 सीटें जीत कर दक्षिण भारत में अपनी उपस्थिति का एहसास करा दिया था । बहरहाल 1984 में मात्र 2 सीटें मिलने के बाद भी पार्टी के कर्णधार नेताओं ने हताशा और निराशा को किनारे कर चरैवेति-चरैवेति के मूल मंत्र के साथ अगले पड़ाव की ओर रुख किया । भाजपा की कमान 1986 में अटल जी से लाल कृष्ण आडवानी के हाथों में आई और 1990 तक लालकृष्ण आडवानी ने राष्ट्रीय अध्यक्ष के रुप में कार्य किया। 1986 में राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के साथ ही भाजपा में दूसरी पंक्ति के नेता के रुप में प्रमोद महाजन, सुषमा स्वराज, वेंकैया नायडू, अरुण जेटली, नरेन्द्र मोदी, राजनाथ सिंह, उमा भारती जैसे नेता अपनी संगठन क्षमता के चलते पार्टी और जनता के बीच अपनी अलग पहचान बनाने लगे थे । इसी दौरान राजीव गांधी सरकार के बोर्फोस दलाली कांड के उजागर होने से पूरे देश में सरकार विरोधी लहर बनाने में भाजपा ने कोई कसर नही छोड़ी । कागे्रस सरकार बोर्फोस दलाली कांड को दबाना चाहती थी लेकिन फिर भी पुरजोर तरीके से उठाने के कारण यह पूरे देश में जन-जन की जुबान पर चढ़ गया । इसके अलावा राजीव गांधी सरकार द्वारा शाहबानो प्रकरण पर सर्वोच्च न्यायालय को बौना साबित करके अल्पसंख्यकवाद के सामने घुटने टेकने का जो काम किया इसे भी प्रमुख मुद्दा बनाकर भाजपा ने पूरे देश में इस सरकार के खिलाफ जबरदस्त मुहिम छेड़ी । बोर्फोस दलाली कांड, शाहबानो प्रकरण, श्रीलंका में भारतीय सेना का गैरजरुरी हस्तक्षेप, रामजन्मभूमि की उपेक्षा जैसी गंभीर ऐतिहासिक गलतियां कर चुकी राजीव सरकार को सत्ताच्यूत करने के लिए भाजपा ने 1989 में जनता दल के साथ गठजोड़ किया क्योंकि दोनों ही दलों का साझा उद्देश्य कांग्रेस सरकार को सत्ता से बाहर करना था ।
1989 के लोकसभा चुनावों में भाजपा ने 86 सीटें जीतीं जो कि 1984 की 2 सीटों की तुलना में एक सीधी उछाल थी । भाजपा ने अपने गठन के एक दशक के भीतर ही देश की राजनीति में एक निर्णायक दल के रुप में उपस्थिति दिखाई ।
1990 के दशक की शुरुआत में भाजपा के समर्थन से चल रही वीपी सिंह सरकार अक्टूबर 1990 में उस समय खतरे में आ गई जब प्रधानमंत्री के दल से ताल्लुक रखने वाले एक मुख्यमंत्री ने रामरथ यात्रा का नेतृत्व कर रहे लाल कृष्ण आडवानी को रोकने का दुस्साहस किया यही कदम वीपी सिंह सरकार के पतन का कारण बना । ऐतिहासिक अयोध्या आंदोलन की एक कड़ी के रुप में आयोजित रामरथ यात्रा के दौरान भाजपा की बढ़ती लोकप्रियता और व्यापक जनसमर्थन से वीपी सिंह सरकार डर गई थी वह किसी भी स्थिति में भाजपा को कांग्रेस का विकल्प बनने से रोकना चाहती थी । रामभक्ति को लोकशक्ति में बदलने की लालकृष्ण आडवानी की मुहिम अनोखी थी । वे रामजन्मभूमि से जुड़े ऐतिहासिक तथ्यों को चरणबद्ध तरीके से जनता के बीच रखकर भगवान राम और विदेशी आक्रान्ता बाबर की समानता बताने वाले विरोधियों पर कठोर टिप्पणी करके भारतीय जनमानस को झकझोरते थे । आडवानी जी गुजरात के सोमनाथ मंदिर के पुनरुद्धार की तर्ज पर रामजन्मभूमि का भी पुनरुद्धार चाहते थे । इस मामले में भाजपा के स्थानीय नेता भी गली मोहल्लों में इस बात की चर्चा अवश्य करते थे कि जब मुस्लिमों का मक्का में पूर्ण इस्लामिक वातावरण है और ईसाइयों का वेटिकन सिटी में ईसाइयत का पूर्ण अधिकार है तो भारत के करोड़ों हिन्दुओं के मन में जिन भगवान राम के प्रति अगाध श्रद्धा है उनकी अयोध्या में राम लला की स्थापना क्यों नही हो सकती ?
भाजपा के वीपी सिंह सरकार से समर्थन वापसी के बाद कुछ दिनों तक कांगे्रस के समर्थन से चंद्रशेखर प्रधानमंत्री रहे कांग्रेस के समर्थन वापसी के चलते चंद्रशेखर सरकार की विदाई हुई। इसके बाद 1991 में लोकसभा चुनावों की घोषणा हुई । इससे पूर्व मार्च 1990 में भारतीय जनता पार्टी ने मध्यप्रदेश, राजस्थान और हिमाचल प्रदेश विधानसभा में जीत हासिल कर ली थी। 1991 में हुए लोकसभा के पहले चरण के चुनाव के तुरंत बाद ही राजीव गांधी की हत्या हो गई इस जघन्य कांड की वजह से भारतीय राजनीति ने करवट ली और शेष दो चरणों का चुनाव जून 1991 तक के लिए स्थगित कर दिया गया । इस स्थगन की वजह से कांगे्रस के पक्ष में सहानुभूति लहर पैदा होने में मदद मिली लेकिन सहानुभूति लहर के बावजूद कांग्रेस को सरकार बनाने जितना भी बहुमत नही मिल सका आवश्यक 273 सीटों से वह काफी पीछे रही कांग्रेस को 232 सीटें ही मिली । इनमें से दूसरे और तीसरे चरण के चुनाव जो कि राजीव की हत्या के बाद हुए थे, में ही उसने ज्यादा सीटें जीती थी जबकि भाजपा को 1989 की 89 सीटों के मुकाबले 1991 में 121 सीटें मिली, यह भाजपा के बेहतर होते प्रदर्शन की निशानी था । 1991 के लोकसभा चुनाव के बाद लालकृष्ण आडवानी नेता प्रतिपक्ष बने ।
1991 में उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव में भाजपा को मिली जीत ने उसका उत्साह को बढ़ाने का काम किया देश के सबसे बड़े राज्य में भाजपा की सरकार बनना एक सुखद अनुभूति रही, कल्याण सिंह उत्तरप्रदेश में भाजपा के मुख्यमंत्री बने । 1991 में ही लाल कृष्ण आडवानी के स्थान पर डॉ. मुरली मनोहर जोशी ने राष्ट्रीय अध्यक्ष के रुप में भाजपा की कमान संभाली । राष्ट्रीय अध्यक्ष रहते डॉ. मुरली मनोहर जोशी ने कश्मीर के आतंकवादियों और अलगाववादियों को चुनौैती देते हुए कन्याकुमारी से कश्मीर तक 47 दिनों की एकता यात्रा करके 26 जनवरी 1992 को श्रीनगर के लाल चौक में तिरंगा फहराया और पूरे देश में कश्मीर में फैले आतंकवाद को लेकर जनजागरण अभियान चलाया ।
6 दिसंबर 1992 को को अयोध्या में हुई मस्जिद ढांचा विध्वंस की दुखद घटना के चलते उत्तरप्रदेश सरकार जाती रही वहीं मध्यप्रदेश, राजस्थान और हिमाचल प्रदेश की लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई भाजपा सरकारों को बेवजह बर्खास्त किया गया जबकि इन सरकारों का अयोध्या की घटना से कोई लेना देना ही नही था । 1993 के चुनावों में भाजपा दोबारा इन राज्यों में वापसी नही कर सकी लेकिन दिल्ली में मदनलाल खुराना और राजस्थान में भैरो सिंह शेखावत के नेतृत्व में हुई जीत ने भाजपा को राहत दिलाई । 1993 में लाल कृष्ण आडवानी ने राष्ट्रीय अध्यक्ष की जिम्मेदारी संभाली और 1995 में दोबारा फिर राष्ट्रीय अध्यक्ष चुने गये और नबंवर 1995 को मुंबई अधिवेशन में देश भर से आये भाजपा के 1 लाख प्रतिनिधियो के बीच लालकृष्ण आडवानी ने अटल बिहारी वाजपेयी को भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित किया । मुंबई अधिवेशन से नारा निकला अगली बारी - अटल बिहारी ।
सत्तासीन नरसिम्हाराव सरकार ने 1996 में देश के धुरंधर राजनीतिज्ञों को हाशिये में डालने के लिए हवाला कांड का सहारा लिया जिसमें लालकृष्ण आडवानी, मदनलाल खुराना सहित कुछ भाजपा नेताओं के नाम भी रहे । भाजपा अध्यक्ष आडवानी ने हवाला कांड में आरोप लगते ही तत्काल लोकसभा से त्यागपत्र देकर यह घोषणा की कि जब तक न्यायालय मुझे मिथ्या आरोपों से मुक्त नही कर देता तब तक मैं लोकसभा चुनाव नही लड़ूंगा । लालकृष्ण आडवानी की उक्त घोषणा से जहां भाजपा के सारे केन्द्रीय नेता भौंचक रह गये वहीं देश भर में भाजपा कार्यकर्ताओं ने गर्व की अनुभूति की क्योंकि राजनीतिक शुचिता का यह प्रत्यक्ष उदाहरण था । आडवानी के इस कदम से उनका राजनीतिक कैरियर भी समाप्त हो सकता था लेकिन उन्होने इसकी परवाह नही की । दिल्ली के मुख्यमंत्री मदनलाल खुराना ने भी आडवानी के पदचिन्हों पर चलकर मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया । 16 महिने बाद दिल्ली उच्च न्यायालय ने अप्रैल 1997 में आडवानी को हवाला कांड के सभी आरोपों को मिथ्या करार देते हुए से दोषमुक्त कर दिया ।
मई 1996 को हुए लोकसभा चुनावों में त्रिशंकु संसद का गठन हुआ । राष्ट्रपति ने सबसे अधिक सीटें जीतकर आने वाले दल के रुप में भाजपा के अटल बिहारी वाजपेयी को सरकार बनाने आमंत्रित किया और 14 दिनों के भीतर विश्वास मत हासिल करने को कहा । 16 मई 1996 को वह ऐतिहासिक दिन आया जब पहली बार गैर कांग्रेसी पृष्ठभूमि वाले अटल बिहारी वाजपेयी ने प्रधानमंत्री के रुप में शपथ ली । भाजपा को सत्ता में आने से रोकने के लिए सारे अवसरवादी एक जुट हो गए । भाजपा ने भी अपनी सरकार बचाने के लिए किसी अनैतिक कदम का सहारा नही लिया और तेरह दिनों के बाद अटल जी ने त्यागपत्र दे दिया सदन में विश्वास मत पर हुई बहस में अटल जी द्वारा दिया गया भाषण उनके राजनीतिक कैरियर का सर्वश्रेष्ठ भाषण था बहस को समाप्त करते हुए अटल जी ने कहा था कि हम वापस आयेंगे । इस्तीफा देने के वाजपेयी के इस कदम ने उनकी लोकप्रियता को शिखर पर पहुंचा दिया और एक राजनीतिक नायक के रुप में भारत की जनता के मन में उन्होने जगह बना ली ।
इसके बाद प्रधानमंत्री बने एचडी देवेगौड़ा और इन्द्रकुमार गुजराल की सरकारें अपने मंत्रियों के आपसी झगड़ों और छीना झपटी में ही उलझी रही ।
1997 में भारत की स्वतंत्रता की पचासवीं वर्षगांठ (स्वर्ण जयंती) को भाजपा अलग तरह से मनाना चाहती थी । स्वाधीनता आंदोलन के शहीदों और नायकों को उनके संबद्ध स्थल पर जाकर श्रद्धांजलि देने का निर्णय लेते हुए भाजपा के राष्ट्रीय नेताओं ने राष्ट्रीय अध्यक्ष लालकृष्ण आडवानी के नेतृत्व में स्वर्ण जयंती रथ यात्रा निकालने की योजना बनाई । स्वर्णजयंती रथ यात्रा 18 मई 1997 को मुंबई के अगस्त क्रांति मैदान से निकलकर महाराष्ट्र, गोवा, कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश, गुजरात, राजस्थान, मध्यप्रदेश, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल, बिहार, उत्तरप्रदेश, हिमाचल प्रदेश, जम्मू कश्मीर, पंजाब, हरियाणा होकर 15 जुलाई 1997 को दिल्ली में समाप्त हुई । स्वर्ण जयंती रथ यात्रा का एक पहलू यह भी था कि भारतीय जनता पार्टी और लालकृष्ण आडवानी का नाम भी जन जन के बीच पहुंच रहा था । देश में राजनीतिक अस्थिरता के माहौल में निकाली गई यह स्वर्ण जयंती रथ यात्रा भारतीय जनता पार्टी के लिए अनुकूल वातावरण बनाने में भी सहायक सिद्ध हो रही थी ।
नवंबर 1997 में कांग्रेस ने ये नौटंकी करते हुए गुजराल सरकार ने समर्थन वापस ले लिया कि राजीव गांधी की हत्या के षडय़ंत्र में शामिल दल डीएमके के मंत्रियों को निकाल दे हालंाकि बाद में डीएमके से कांग्रेस को कोई एलर्जी नही रही और मनमोहन सिंह सरकार में उसके सांसदों को मंत्री पद से नवाजा गया । कांग्रेस की समर्थन वापसी से देश में मध्यावधि चुनाव का मार्ग प्रशस्त हुआ । भाजपा अटल जी की तेरह दिन की सरकार जाने के बाद से ही चुनावी तैयारी में लग गई थी दूसरी तरफ 1996 से 1998 में दो साल में तीन प्रधानमंत्री देखने वाली देश की जनता में राजनीतिक अस्थिरता दूर करने का मन बना लिया था ।
मार्च 1998 में लोकसभा के मध्यावधि चुनावों में भाजपा ने योग्य प्रधानमंत्री-स्थिर सरकार का नारा देकर अटल जी के करिश्मे और लहर को वोटों में तब्दील करने में कोई कसर नही छोड़ी जिसके परिणामस्वरुप भाजपा ने 384 में से 182 सीटें जीतकर अपने 1996 के प्रदर्शन(161 सीटें)में सुधार किया । भाजपा का सबसे ज्यादा सीटें जीतकर आने वाला दल होने के नाते भाजपानीत सरकार बनना तय था भाजपा को मिलाकर 16 दलों का गठबंधन तैयार हुआ जिसे राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का नाम दिया गया । इसी गठबंधन ने अटल बिहारी वाजपेयी को अपना नेता चुना । 1980 में भाजपा की स्थापना के समय कांग्रेस का सार्थक विकल्प बनने का जो लक्ष्य रखा था वह मार्च 1998 में अटल जी के प्रधानमंत्री के रुप में शपथ लेने से सार्थक हुआ । गठबंधन के साझा कार्यक्रम के तहत भाजपा ने अपने तीनों मुद्दों रामजन्मभूमि पर मंदिर निर्माण, समान नागरिक संहिता का निर्माण और कश्मीर संबंधित अनुच्छेद 370 को तब तक के लिए स्थगित कर दिया जब तक उसे स्वयं के बल पर पूर्ण बहुमत हासिल नही हो जाता ।
भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष लालकृष्ण आडवानी अब देश के गृहमंत्री बन चुके थे और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष के रुप में उनका कार्यकाल भी समाप्त हो चुका था इसलिए अप्रैल 1998 में भाजपा के अनुभवी नेता कुशाभाऊ ठाकरे जो अपनी नि:स्वार्थता, सादगी और संगठनक्षमता के लिए जाने जाते थे को सर्वसम्मति से लालकृष्ण आडवानी के स्थान पर राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया गया ।
भाजपा ने अपने घोषणापत्र में भारत को परमाणु शक्ति सम्पन्न राष्ट्र बनाने का उल्लेख किया था अपनी इस घोषणा के पालन करने अटल जी ने शपथ लेने के साथ ही काम शुरु कर दिया और दो महिने के भीतर 11 मई 1998 को ही पोखरण परमाणु परीक्षण करके यह दिखा दिया कि भाजपा में कथनी को करनी में बदलने का साहस है । इस परमाणु विस्फोट से देश को शक्तिशाली और स्वाभिमानी होने का एहसास हुआ । अटलजी के नेतृत्व में राजग सरकार ने देश में अधोसंरचना के विकास पर विशेष बल दिया ग्रामीण सड़कों व राष्ट्रीय राजमार्गों का विकास, संचार, सूचना प्रौद्योगिकी सहित ऊर्जा क्षेत्र में विशेष कार्य किये । फरवरी 1999 को पड़ोसी देश पाकिस्तान से कड़वे रिश्तों को ठीक करने की पहल करते हुए लाहौर बस यात्रा की । लेकिन पाकिस्तान ने आदतन भारत विरोधी रवैया अपनाते हुए कारगिल में घुसपैठ की जिसका करारा जबाव देते हुए आपरेशन विजय चलाकर पाकिस्तान के नापाक ईरादों को नेस्तनाबूद कर दिया । वास्तव में कारगिल हमला एक युद्ध ही था जो कि पाकिस्तान के प्रशिक्षित सैनिक घुसपैठियों के वेश में लड़ रहे थे ।
1998 में अटल जी के नेतृत्व में बनी राजग सरकार 13 महिने चलने के बाद अप्रैल 1999 कांगे्रस की वजह से मात्र एक वोट से गिर गई । देश एक बार फिर मध्यावधि चुनाव की ओर मुड़ गया । इस बार राजग का विस्तार हुआ और चौबीस पार्टियां इसमें शामिल हुई । अटल जी की सरकार के एक वोट से गिर जाने का दर्द जन जन के मन में था, जनता के बीच जाकर की गई भाजपा की मार्मिक अपील ने जबरदस्त काम किया और सितम्बर-अक्टूबर 1999 में संपन्न लोकसभा चुनाव में 545 सदस्यों के सदन में राजग ने 306 सीटें जीतकर भारी बहुमत हासिल किया इसमें भाजपा ने 182 सीटें हासिल की थी । 13 अक्टूबर 1999 को अटल बिहारी वाजपेयी ने पुन: प्रधानमंत्री पद की शपथ ली । अपने इस कार्यकाल में भाजपानीत केन्द्र सरकार ने पिछली अवधि में बनाई गई योजनाओं को मूर्त रुप देने का काम किया । वर्ष 2000-01 में भाजपानीत केन्द्र सरकार ने ऐतिहासिक काम करते हुए छत्तीसगढ़, झारखंड और उत्तरांचल नामक तीन छोटे राज्यों का गठन किया । दिसंबर 2003 में मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भाजपा को मिली शानदार विजय से उत्साहित उसके रणनीतिकारों ने सितम्बर 2004 के नियत समय से पूर्व ही लोकसभा चुनाव करवाने के लिए पर जोर दिया, आत्मविश्वास से सराबोर भाजपा ने छह महिने पहले फरवरी 2004 में ही लोकसभा भंग कर दी । चुनाव के प्रचार की कमान लालकृष्ण आडवानी ने संभाली । राष्ट्रीय अध्यक्ष वेंकैया नायडू से बातचीत कर लालकृष्ण आडवानी ने एक बार पुन: यात्रा निकालकर जनता के बीच जाने का निर्णय लिया इस यात्रा को भारत उदय यात्रा का नाम दिया गया । 2004 के चौहदवीं लोकसभा की मतगणना के परिणाम भाजपा के लिए चौंकाने वाले थे, भाजपा के नीचे से ऊपर तक के सारे नेता स्तब्ध थे जिसकी उन्होने कभी कल्पना नही की थी वो परिणाम सामने आया । 1999 में मिली राजग को मिली 306 सीटों के मुकाबले 2004 में 186 सीटें ही मिली हालाकि कांग्रेस गठबंधन को भी 216 सीटें ही मिली थी लेकिन वामपंथी दलों के 62 सांसदों का समर्थन मिलने से वह सरकार बनाने की स्थिति में आ गई । प्रधानमंत्री के रुप मे सोनिया गांधी का नाम सामने आने पर भाजपा के नेताओं ने कठोर प्रतिक्रिया दी यहां पर भाजपा का विरोध किसी व्यक्ति विशेष के खिलाफ नही था बल्कि भारत में उच्च संवैधानिक पदों पर विदेशी मूल के व्यक्ति का आसीन होने विरोध था यह विरोध सैद्धांतिक था । बाद में संविधानेत्तर व्यवस्था करके सोनिया गांधी का राष्ट्रीय सलाहकार परिषद का अध्यक्ष बनकर प्रधानमंत्री के पदधारी व्यक्ति को सलाह देने के कार्य को भी भाजपा ने अनुचित ठहराया ।
2004 लोकसभा चुनाव में मिली हार को पार्टी ने चुनौती के रुप में लिया और हार की समीक्षा करके नये सिरे से शुरुआत करने की ठानी । 2004 में लालकृष्ण आडवानी को वेंकैया नायडू की जगह भारतीय जनता पार्टी का राष्ट्रीय चुना गया । 2005 में राजनाथ सिंह भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने । 2008 के लोकसभा चुनाव में लालकृष्ण आडवानी को भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी बनाकर चुनाव लड़ा गया लेकिन भाजपा का दुर्भाग्य रहा कि वो फिर सत्ता में आने से चूक गई । राष्ट्रीय राजनीति में संकटों से जूझ रही पार्टी का नेतृत्व 2009 में नागपुर के नितिन गडकरी को सौंपा गया । सेवा और विकास में विश्वास रखने वाले नितिन गडकरी क्रांतिकारी कार्यों के लिए जाने जाते हैं, महाराष्ट्र सरकार में लोक निर्माण मंत्री रहते मुम्बई-पुणे एक्सप्रेस वे और 55 फ्लाई ओवर बनाकर मुम्बई को एशिया के अन्य प्रमुख शहरों के मुकाबले में खड़ा करने की उपलब्धि उनके नाम है । वाजपेयी सरकार में प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना के क्रियान्वयन करते हुए देश भर के ग्रामीण अंचलों में सड़कों का जाल बिछाने मेें नितिन गडकरी ने अहम भूमिका निभाई है । आज नितिन गडकरी के सामने देश में भाजपा को फिर से मजबूत स्थिति में खड़ा करने की चुनौती है, आज भारतीय जनता पार्टी के कांग्रेसीकरण होने के आरोपों के बीच उसे अपनी एक अलग राजनीतिक दल के रुप में बनी पहचान को कायम रखने की भी चुनौती का भी सामना करना है ।
1980 में अटल जी राष्ट्रीय अध्यक्ष बने और 2010 से नितिन गड़करी राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं । अटल बिहारी वाजपेयी से लेकर नितिन गड़करी तक भाजपा का 30 सालों का सफर उतार चढ़ावों से भरा रहा है । आज भारतीय राजनीति पर नजर डालें तो एक बात स्पष्ट होकर सामने आती है कि भाजपा के बिना देश के राजनीतिक परिदृश्य की कल्पना नही की जा सकती, बिना भाजपा का जिक्र किये भारतीय राजनीति की कोई परिचर्चा पूरी नही हो सकती। भाजपा के नीति निर्धारकों ने इसे साधारण राजनीतिक दल के रुप में नही बल्कि एक वैचारिक संगठन के रुप में विकसित करने का प्रयास किया । भाजपा के विचारकों का हमेशा से यह मत रहा है कि सत्ता के सहारे से परिवर्तन नही लाया जा सकता बल्कि सत्ता परिवर्तन लाने का एक साधन जरुर हो सकती है । सत्ता को साध्य नही साधन मानने की भाजपा की नीति के चलते ही इसके गठन के पहले दशक में जनभावनाएं तेजी के साथ इसके साथ जुड़ी । दूसरे दशक में भाजपा ने एनडीए जैसा विशाल गठबंधन तैयार कर देश में गठबंधन राजनीति के नए युग की शुरुआत की । भाजपानीत एनडीए ने अपने दूसरे दशक में देश की बागडोर संभाल कर जनता को सुखद एहसास कराया । छह साल तक केन्द्र में भाजपानीत एनडीए ने शासन किया । तीसरे दशक में केन्द्र की सत्ता भले ही भाजपा के हाथों से निकल गई लेकिन देश के छह बड़े राज्यों गुजरात, मध्यप्रदेश, कर्नाटक, छत्तीसगढ़, हिमाचल प्रदेश, गोवा में स्वयं के बलबूते राज कर रही है और तीन राज्यों पंजाब, बिहार, झारखंड की सरकारें भाजपा के सहारे चल रही है । अपने 30 बसंत पार करने के बीच भाजपा के सुखद दिनों में से एक दिन वह भी था जब उसने दक्षिण भारत के राज्य कर्नाटक में स्वयं के बल पर सत्ता हासिल कर वहां कांग्रेस और ब्लैकमेलर क्षेत्रीय दलों का वर्चस्व तोडऩे में सफलता पाई ।
आज भाजपा का नेतृत्व नई पीढ़ी के हाथों में है, अटल, आडवानी और मुरली मनोहर मार्गदर्शक की भूमिका में आ चुके हैं । नई पीढी के नेता भाजपा को संवारने के लिए कठोर मेहनत कर रहे हैं । सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की विचारधारा के साथ एकात्म मानववाद के सिद्धांतों पर मजबूती के साथ खड़े रहते हुए उत्तरप्रदेश, आंध्रप्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल, हरियाणा, केरल, तमिलनाडू जैसे राज्यों में पार्टी का आधार मजबूत करने से ही पार्टी की राष्ट्रीय राजनीति में वापसी की संभावना बढ़ेगी । भाजपा की 32 सालों की संघर्षशील पृष्ठभूमि के चलते ये काम नामुमकिन नही है । राष्ट्रीय नेतृत्व में दिखाई देने वाली दृढ़ इच्छाशक्ति और संकल्प से राष्ट्रीय राजनीति में भाजपा के अच्छे दिन फिर से लौटेंगे । आज बेलगाम महंगाई, बेतहाशा भ्रष्टाचार और विदेशों में जमा कालेधन को लेकर भाजपा का संघर्ष जनमानस में खास प्रभाव छोड़ रहा है, संसद से लेकर ग्राम स्तर तक भाजपा का जनजागरण अभियान चल रहा है । भाजपा के कठोर कदमों के कारण ही सरकार को सदन में झुकना पड़ा और 2 जी स्पेक्ट्रम मामले में जेपीसी गठन की मांग माननी पड़ी, केन्द्रीय सतर्कता आयुक्त की नियुक्ति के मामले में भी भाजपा के अभिमत की अवहेलना करने के बाद केन्द्र सरकार और प्रधानमंत्री को सुप्रीम कोर्ट से फटकार मिलने से भाजपा की सतर्क विपक्ष की भूमिका उजागर हुई है । भाजपा की जड़ें राष्ट्रीय राजनीति में बहुत मजबूती से जम चुकी है ।
राजेन्द्र पाध्ये (लेखक भारतीय जनता युवा मोर्चा के छत्तीसगढ़ प्रदेश कार्यसमिति सदस्य हैं, पार्टी के मीडिया सेल से जुड़े हुए हैं एवं दुर्ग जिला भाजपा के मीडिया प्रभारी रह चुके है) सम्पर्क :- मोबाइल :: 098934-31588